ब्रह्मर्षि परिवार -- विश्वधर्म चेतना मंच, चंडीगढ़ शाखा
गुरु कृपा के अनुपम प्रसाद संग मिलेगा विश्व के समस्त देवी-देवताओं का आशीर्वाद

Sunday, 14 September 2014

सफलता के लिए दृढ़ विश्वास व अखंड श्रद्धा आवश्यक

ब्रह्मर्षि गुर्वानंद स्वाजी


  • श्रद्धेय परमहंस योगेश्वर ब्रह्मर्षिजी स्वामी गुरुदेव इच्छा, मोह के स्वरूप का निरूपण व विश्वास की महिमा का वर्णन करते हुए फरमाते हैं कि जीवन
  •  में इच्छा का बहुत महत्व है। बिना इच्छा के जीवन चल नहीं सकता। लेकिन सावधान! इच्छा लोभ से युक्त न हो, न ही लोभ से संचालित हो। इच्छा मोह में भी न बदलने पाये। इच्छा का होना बुरा नहीं है। विश्व की महान विभूतियों इश्वरीयावतारों में भी इच्छा थी। श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध महावीर के अंदर भी इच्छा थी। महावीर भी चाहते थे कि इस संसार से अधर्म मिटे, धर्म आये। हिंसा मिटे अहिंसा आये। इसलिए महावीर ने नारा दिया—अहिंसा परमो धर्म:। इस प्रकार किसी ने जिओ और जीने दो का नारा दिया तो किसी ने धर्म का उद्घोषि किया, किसीने कर्म का तो किसी ने ज्ञान का और किसी ने कर्म, ज्ञान, भक्ति तीनों का नारा दिया। गीता, रामायण, आगम आदि के रूप में अपनी विचारधारा, चिंतन और ज्ञान का आलोक फैलाकर विभिन्न विभूतियों ने इस विश्व का अनेक प्रकार से कल्याण किया।

  • ऋषि पुत्र के सात दिनों के अंदर-अंदर सांप द्वारा डंस कर मृत्यु हो जाने के श्राम से भयभीत परीक्षित मुनि शुकदेव की शरण जाकर विनती करते हैं कि मेरे पास सिर्फ सात दिवस बचे हैं। मेरी मृत्यु निश्चित है, मैं क्या करूं? कैसे बचूं? शुकदेवजी ने परीक्षित के अंदर मोह-लोभ-लालसा पैदा नहीं किये। उन्होंने कहा—परीक्षित तुम तो भाग्यवान हो कि तुम्हें सात दिन मिल चुके हैं। निश्चित है कि उससे पहले तुम मरने वाले नहीं हो; लेकिन हमारा क्या निश्चित है कि किस पल आंखें बंद हो जायें, दिल धडक़ना बंद कर दे? तुम क्यों भयभीत और व्यथित हो रहे हो? तुम्हारे पास तो सात दिन निश्चित रूप से पड़े हैं। सात दिनों में शुकदेवजी ने राजा परीक्षित को सात दिनों तक श्रीमद्भागवत की कथा सुनाई और उनके अंदर के भय, लालसा, मोह व लोभ को खत्म कर दिया।
  • उत्तम ध्येय, लक्ष्य को पाने के लिए गुरु के प्रति दृढ़विश्वास, अखण्ड श्रद्धा का होना अत्यावश्यक है। लेकिन वर्तमान समय में अधिसंख्य भक्त-श्रद्धालु-शिष्य विश्वास-श्रद्धा-भक्ति-निष्ठा के अभाव से ग्रस्त हैं। उनका शंकाओं के बादलों से घिरा मन पारे की भांति डांवांडोल हो उठता है। कारण, कि कहीं न कहीं वे अपने किसी स्वार्थ से गुरु से जुड़े हैं। गुरु पर उनको विश्वास नहीं है। कहीं न कहीं उनके अन्दर मोह और स्वार्थ ने जड़ें जमा ली हैं।
  • परमपूज्य गुरुदेव (ब्रह्मर्षि गुर्वानंद स्वाजी) जी से भक्तजन अपने कष्टों, अभावों, संकटों, दु:खों को सुनाकर-बताकर घर जाकर आराम से जो जाते हैं लेकिन करुणा-सागर गुरुदेव रात-रातभर जग-जगकर तपस्या करके हमारे उन संकटों-कष्टों को दूर करने का प्रयास करते रहते हैं। हम तो अपनी समस्या बताकर मजे से अपने संसार में मग्न हो जाते हैं, रातों को मजे से सो जाते हैं लेकिन गुरुदेव नहीं सोते, वे हमारे दु:खों-संकटों का निदान करने के लिए  महीनों-महीनों समाधि-सिद्धि में बैठे रहते हैं। कोई आकर गुरुदेवजी से अपने बच्चे की समस्या, कोई पिता की समस्या तो कोई भाई की समस्या कहता है कि गुरुजी इनका क्या होगा। लेकिन केवल एक बार बताकर भी हमें विश्वास नहीं होता, शंका रहती है मन में इसलिएबार-बार रिपीट करते रहते हैं। परमसिद्ध महापुरुषों-दैवीय विभूतियों को क्या बार-बार याद दिलाना पड़ता है या यादि दिलाना उचित है—हमें इस बात की समझ ही नहीं है। हम अपनी लालसा और स्वार्थ की डोरी से इतने लिपट जाते हैं कि विशुद्ध प्रेम, नि:स्वार्थ भक्तिऔर परम श्रद्धा के सोपानों की ओर हमारा मन उन्मुख ही नहीं हो पाता।
  • करुणासिंधु गुरुदेवजी कहते हैं कि अगर व्यक्ति में 99 प्रतिशत विश्वास है, एक प्रतिशत की भी कमी है तो हो सकता है उसका काम पूर्ण न हो, सफलता न मिले, उसकी प्रार्थनान सुनी जाये। लेकिन अगर व्यक्ति में ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, श्रद्धा के साथ शतप्रतिशत विश्वास होगा तो उसकी प्रार्थना पपूर्ण न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। पूर्ण विश्वास का अर्थ ही यही है कि व्यक्ति के मन में रंचमात्र भी संदेह नहीं है, असफल होने या प्रार्थना न सुनी जाने के प्रति। शतप्रतिशत दृढ़ अखंड विश्वास रखने वाले व्यक्ति की सफलता-सहायता के लिए ईश्वरीय, ब्रह्माडीय शक्ति भी सक्रिय हो जाती हैं।